गुवाहाटी में मौसम का हाल जानने के लिए कोई ऐप्प खोलने की ज़रूरत नहीं होती। यहां के लोग छाता और चश्मा दोनों साथ लेकर निकलते हैं, क्योंकि यहां मौसम नहीं, मिज़ाज बदलता है — और वो भी बिना बताए।
सुबह 10 बजे तक सड़कों पर ऐसी तपिश उतरती है, जैसे तवे पर रखी रोटियां जलने लगी हो। सूरज चमकता नहीं, घूरता है। हवा घुटन बन जाती है, पसीना ऐसे चिपकता है जैसे कोई पुराना हिसाब हो। ब्रह्मपुत्र तक थककर चमकता है, पेड़ झुककर हार मानते हैं, और लोग बोलना कम कर देते हैं — गर्मी में शब्द भी पिघलते हैं।
और जब लगता है कि शहर अब इस जलते हुए ताप से हार मान जाएगा…
तभी आसमान टूट पड़ता है।
कोई चेतावनी नहीं, कोई हल्की बूंदाबांदी नहीं — बस एकाएक तूफानी बारिश, जो गिरती नहीं, हमला करती है। मिनटों में सड़कें गुम, गटर उफनते ज्वालामुखी बन जाते हैं। घरों में पानी घुसता है, गली में चप्पल बहती दिखती है — जैसे कोई अकेला सैनिक, जो बिना लड़ाई के हार गया।
हर साल हम सुनते हैं — ‘अभूतपूर्व वर्षा’, ‘शहरीकरण’, ‘जलवायु परिवर्तन’। लेकिन हमें पता है ये क्या है:
यह एक ऐसा शहर है जिसे वादों की सिलाई से जोड़ा गया है — और हर बारिश में वो सिलाई उधड़ जाती है।
यह प्लास्टिक से भरे नाले हैं, मुनाफे में कटे हुए पहाड़, और गाड़ी पार्क करने के लिए मिटाए गए जलाशय।
यह उन लोगों की चुप्पी है जो बदलाव ला सकते थे, और उनकी हिम्मत है जिन्हें रोज़ इसके बीच जीना है।
फिर भी हम चलते रहते हैं।
हम गामोसा कसकर बांधते हैं, पानी को परे हटाते हैं, हंसी में दर्द छुपाते हैं।
बाढ़ में बच्चों को उठाकर पार कराते हैं और व्यवस्था को मन ही मन कोसते हैं।
और जब रात को बिजली गुल हो जाती है, और बारिश किसी चेतावनी जैसी गिरती है — हम सोचते हैं,
“कभी इतना सुंदर, हरा-भरा ये शहर इतना कमजोर कैसे हो गया?”
सुबह फिर आती है।
फिर वही सूरज, वही जलन, वही बारिश…
और हम फिर तैयार होते हैं — क्योंकि गुवाहाटी हमारा शहर नहीं, हमारी पहचान है।
शायद एक दिन…
ये शहर हमें उतना ही चाहेगा,
जितना हमने इसे धूप और बाढ़ में भी चाहा है।