असम ने शुक्रवार की सुबह एक ऐतिहासिक और भावनात्मक पल देखा। ज़ुबिन गर्ग की आखिरी फिल्म “रोई रोई बिनाले” रिलीज़ होते ही पूरे राज्य में एक उत्साह और सन्नाटा दोनों फैल गया। थिएटर सुबह से ही हाउसफुल चल रहे है , हर सीन और हर गाने ने दर्शकों को गहराई से छू लिया। कुछ लोग फिल्म के बीच में ही रोते हुए बाहर निकले, कुछ ने हाथ जोड़कर श्रद्धांजलि दी। गुवाहाटी और बाकी शहरों में माहौल भावनाओं से भरपूर रहा।

सुबह चार बजकर पच्चीस मिनट पर बेलटोला के मैट्रिक्स सिनेमा हॉल में पहला शो शुरू हुआ। इतना जल्दी शुरू होना अपने आप में कुछ अलग था, लेकिन यही ज़ुबिन का अंदाज़ था — हमेशा हटकर, हमेशा दिल से। सूरज निकलने से पहले ही सैकड़ों लोग थिएटर के बाहर खड़े थे। किसी के हाथ में पोस्टर थे, किसी ने उनके नाम का स्कार्फ पहना हुआ था, और हर चेहरे पर बस एक ही उम्मीद थी — “ज़ुबिन को आखिरी बार बड़े पर्दे पर देखना है।”
थिएटर के अंदर माहौल भावनाओं से भरा हुआ था। हर फ्रेम, हर गाना, हर डायलॉग दर्शकों के दिल को छू गया। कई जगह तालियों की गूंज सुनाई दी, उसके बाद आई सन्नाटा और खामोशी सब कुछ बयां कर गई। ऐसा लगा जैसे हर कोई अपनी यादों में खो गया हो। शिवसागर , मोरान, धेमाजी, तिहू, बिस्वनाथ, सोनारी और तेजपुर जैसे शहरों में भी यही नज़ारा देखने को मिला। हर थिएटर में फिल्म शुरू होने से पहले ज़ुबिन का मशहूर गाना “मायाबिनी रातिर बुकुत” बजाया गया ।

फिल्म खत्म होने के बाद थिएटरों के बाहर भी दर्शकों की भावनाओं का समंदर था। कई लोग एक-दूसरे को गले लगे, कुछ रोए, कुछ चुपचाप खड़े रहे। सुबह से ही सारे शो हाउसफुल थे। कई लोग दूर-दराज़ से सिर्फ पहली स्क्रीनिंग देखने आए थे। “रोई रोई बिनाले”, जिसका मतलब है “रुक रुक कर रोना ”, आज पूरी तरह अर्थपूर्ण लग रहा था। फिल्म में ज़ुबिन एक अंधे गायक की भूमिका में हैं, जो समुद्र को छूने का सपना देखता है — और यह प्रतीक आज और भी गहरा हो गया है, क्योंकि उनका निधन 19 सितंबर को सिंगापुर में समुद्र किनारे हुआ।
असम में फिल्म ने इतिहास रचा। 94 थिएटरों में कुल 450 से ज्यादा शो चल रहे हैं। गुवाहाटी के 13 थिएटरों में अकेले 157 शो हो रहे हैं। तेजपुर, जोरहाट, लखीमपुर और तिनसुकिया जैसे शहरों में भी सुबह से रात तक हाउसफुल शो चल रहे हैं। दो थिएटर — गणेश टॉकीज़, जगिरोआद और गांधी भवन, तिहू — सालों बाद सिर्फ रोई रोई बिनाले के लिए फिर से खुले।
हर थिएटर में ज़ुबिन के लिए एक सीट आरक्षित है। मैट्रिक्स सिनेमा में एक सोफा पर पारंपरिक असमिया गमौसा और ज़ूबीन के फोटो को सजाया गया। ढेकियाजुली के नक्षत्र सिनेमा में जीवन-आकार का कटआउट रखा गया, जैसे ज़ुबिन खुद दर्शकों पर नजर रख रहे हों।

फिल्म अब असम के बाहर भी दिखाई जा रही है — मुंबई, दिल्ली-एनसीआर, बेंगलुरु, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, पुणे और अरुणाचल प्रदेश के ईटानगर में। बेंगलुरु में 10 प्रीमियम स्क्रीन पर फिल्म दिखाई जा रही है, जो किसी भी असमिया फिल्म के लिए पहली बार हुआ है। दिल्ली और मुंबई में बड़ी असमिया कम्युनिटी के बीच शो भावनात्मक समारोह में बदल गए, लोग गमौसा लेकर आए और मोमबत्तियां जलाकर श्रद्धांजलि दी।
सम्मान के भाव में, असम सरकार ने अपनी GST हिस्सेदारी ज़ुबिन गर्ग द्वारा स्थापित कलागुरु आर्टिस्ट फाउंडेशन को दान करने की घोषणा की, जो बाढ़ पीड़ितों, छात्रों और संघर्षरत कलाकारों की मदद करता है। ज़ुबिन ने जीवन भर असमिया सिनेमा को जीवित रखने के लिए संघर्ष किया और अब उनकी आखिरी फिल्म ने इसे नई जिंदगी दी।
लगभग 80 थिएटरों ने अन्य सभी फिल्में हटा दीं और सिर्फ रोई रोई बिनाले दिखाई। टिकटें घंटों में बिक गईं। दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु में भी शो हाउसफुल हैं। अपने दुःख के बावजूद, ज़ुबिन की पत्नी और को-प्रोड्यूसर गरिमा सैक्सिया गर्ग ने फिल्म को आज, 31 अक्टूबर को रिलीज़ करवाया — बिल्कुल वैसा ही जैसा ज़ुबिन चाहते थे। कोई पोस्टपोनमेंट नहीं, कोई बहाना नहीं। उन्होंने अपने पति, उनके फैंस और कला के प्रति वचन निभाया। दुःख अक्सर सृजन को रोक देता है, लेकिन गरिमा ने दुःख को गरिमा में बदल दिया। असम ने आज एक महिला के साहस और ज़ुबिन गर्ग की विरासत को एक साथ महसूस किया।