भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों का इतिहास बेहद जटिल रहा है। भारत ने हमेशा पड़ोसी धर्म निभाते हुए सामान्य रिश्ते कायम करने की कोशिश की है — चाहे वह नेहरू के समय की बातचीत हो या मोदी सरकार की कूटनीतिक पहल। लेकिन अफसोस की बात है कि पाकिस्तान के साथ कोई भी कोशिश सफल नहीं हो सकी। इसका कारण भारत की कोशिशों की कमी नहीं, बल्कि पाकिस्तान की राज्य व्यवस्था और वहाँ की सत्ता चलाने वाले तंत्र का चरित्र है।
भारत एक ऐसा पाकिस्तान चाहता है जो खुद के साथ शांति में हो, लेकिन लगता है कि ये उम्मीद करना ही बहुत ज़्यादा हो गया है। दशकों से भारतवासियों को यही सिखाया गया कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के साथ जीना हमारी मजबूरी है। कहा गया कि अगर बातचीत नहीं हुई तो परमाणु हथियारों से लैस पाकिस्तान आत्मघाती युद्ध की तरफ बढ़ जाएगा। इसी डर के कारण भारत को हमेशा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हाथ मलते रहना पड़ा — चाहे वह बहावलपुर और मुरिदके जैसे आतंकवादी अड्डों की मौजूदगी हो या पाकिस्तानी ‘लॉन्च पैड्स’ की खुली गतिविधियां।
लेकिन अब तस्वीर बदल रही है।
ऑपरेशन सिंदूर: भारत की नई सुरक्षा सोच का प्रतीक बनकर उभरा है। यह एक स्पष्ट और ठोस संदेश देता है — अब भारत चुप नहीं बैठेगा। यह अभियान एक सधे हुए युद्ध की तरह चला, जिसका उद्देश्य केवल आतंकवाद को जवाब देना ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान को उसकी ही भाषा में समझाना भी था।
पहलगाम में 22 अप्रैल को निर्दोष नागरिकों की नृशंस हत्या की योजना पहले से तैयार थी। इसकी भूमिका पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर ने 15 अप्रैल को दिए गए उकसावे भरे भाषण से ही तैयार कर दी थी। इसे जानबूझकर उस समय अंजाम दिया गया जब अमेरिका की उपराष्ट्रपति भारत दौरे पर थीं और प्रधानमंत्री मोदी सऊदी अरब की यात्रा पर। पाकिस्तान की कोशिश थी भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर शर्मिंदा करना — लेकिन नतीजा उलटा निकला।
ऑपरेशन सिंदूर की खासियत ये थी कि यह किसी रहस्य की तरह नहीं, बल्कि एक “ओपन बुक एक्ज़ाम” की तरह चलाया गया। भारत ने साफ संकेत दिए थे — हम तैयार हैं, चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े। इस बार निशाना सिर्फ बालाकोट की तरह एक कैंप नहीं था, बल्कि पाकिस्तान के पंजाब और पीओके में फैले कुल 9 आतंकी अड्डे थे। ऑपरेशन की तकनीक, योजना और हमला करने वाले प्लेटफॉर्म पहले से कहीं अधिक उन्नत और सटीक थे।
ऑपरेशन सिंदूर के प्रमुख संदेश:
- पाकिस्तान की “सतर्कता” ध्वस्त – भारत ने उसकी सारी तैयारियों के बावजूद टारगेट हिट किया। बदले की कार्रवाई की संभावना के बावजूद आत्मविश्वास दिखाया और ज़रूरत पड़ने पर और भी बड़ा हमला करने का इरादा जताया।
- “डोज़ियर डिप्लोमेसी” का अंत – अब भारत किसी यूएन या अंतरराष्ट्रीय मंच पर गिड़गिड़ाने वाला देश नहीं रहा। सबूत और फाइलों की अदला-बदली का ड्रामा अब खत्म।
- “परमाणु ब्लैकमेलिंग” का पर्दाफाश – पाकिस्तान ने लंबे समय तक परमाणु युद्ध की धमकी देकर दुनिया को डराया। अब यह bluff खुल चुका है।
- “अंतरराष्ट्रीयकरण” का डर नहीं – पहले डर था कि कोई भी सैन्य कार्रवाई कश्मीर मुद्दे को वैश्विक बना देगी। अब ऐसा कोई भय नहीं बचा।
- मनोवैज्ञानिक अवरोध टूटा – भारत ने सिद्ध कर दिया कि वह अपनी मर्जी से, अपने समय पर, सटीक सैन्य कार्रवाई कर सकता है — और वह भी पूर्ण नियंत्रण में।
आज भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही। पाकिस्तान इस हमले को कश्मीर के नाम पर भुनाने की कोशिश जरूर करेगा, लेकिन अब दुनिया की प्राथमिकता अलग है। अब दुनिया को कश्मीर में सुधार दिख रहा है और असली चिंता पाकिस्तान से फैल रही कट्टरता और आतंकवाद की है।
ऑपरेशन सिंदूर ने एक बार फिर साबित किया कि जब तक पाकिस्तान खुद के भीतर शांति नहीं लाता, तब तक किसी भी पड़ोसी के साथ उसकी शांति की उम्मीद करना बेकार है। और भारत अब इस सच्चाई के साथ जीना नहीं, बल्कि इसका जवाब देना सीख चुका है।
अब भारत की असली जिम्मेदारी है — कश्मीर को स्थिरता और समृद्धि देना, ताकि वह इलाका देश की असली ताकत बन सके।